संशय होने पर अध्यात्मिक प्रगति कैसे प्रभावित होती है?
संशय होने पर अध्यात्मिक प्रगति कैसे प्रभावित होती है? यदि यह प्रश्न आपके मन में है तो आप इस लेख के माध्यम से सरलता से समझ सकते है। इसे समझने के लिए पहले हमें संशय केे शाब्दिक अर्थ का पता होना चाहिए।
संशय का शाब्दिक अर्थ है- ‘शंका’ यानि ‘doubt’। आप इसे यू समझिये जब आप किसी दुविधा में हो तो आप संशय में है। इस बारे में भगवद् गीता के अध्याय 4 के श्लोक 40 में कहा गया है-
अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।4.40।।
इस श्लोक का अर्थ है- “अज्ञानी, विवेकहीन और श्रद्धारहित व्यक्ति का पतन हो जाता है। संशयी मनुष्य के जीवन में न तो इस लोक और न ही परलोक का सुख है।” यह बात सौ प्रतिशत सत्य है। दरअसल जब हम संशय में होते है तो हमारी अध्यात्मिक प्रगति प्रभावित होती है। इसे समझाने के लिए मैंने श्रीराम चरित्रमानस की एक सच्ची घटना को आधार बनाया है।
यह घटना तब कि है जब भगवान श्री राम और लक्ष्मण रणलीला कर रहे थे। तब वे नागपाश में बंध गए थे। दरअसल उन्होने अपने आपको नागपाश में बंधवा लिया था। नागपाश यानि कि साँपों के बधन में बंधना। पर भगवान राम तो लीला कर रहे थे। इसलिए वह माया के साँपों के बंधन में बंधे थे। (माया के साँप वह होते है- जो होते नहीं पर फिर भी दिखाई देते हैं। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार भगवान में कोई बंधन है नहीं, पर दिखाई देता है।)
उधर जब नारद जी को यह समाचार मिला, कि भगवान बंधन में है। वह तुरंत भागे-भागे गए गरुड़ जी के पास गये और दूर से चिल्लाने लगे, “गरुड़ जी! गरूड जी!….भगवान बंधन में बंधे हैं। वे सर्पों के बंधन में बंध गए हैं। उनका कल्याण तो बस आप ही कर सकते हो।” नारद जी तो सदैव ऐसे ही मौकों की तलाश में रहते थे।
जब गरुड़ जी ने यह सुना तो वह भागे-भागे उस स्थान पर पहुँचे। उन्होंने वहाँ पहुँचकर उन साँपों को खाना शुरू कर दिया। जबकि वहाँ साँप थे ही नहीं पर माया के कारण दिखाई दे रहे थे।
साँपों को खाने के बाद श्री राम और लक्ष्मण ने अपने को मुक्त होने का अभिनय किया और गरुड़ जी को धन्यवाद दिया। अब गरुड़ को यह संशय हो गया कि- ‘भगवान राम वास्तव में भगवान है भी या नहीं।’ उनके मन और बुद्धि में तरह- तरह के प्रश्न उठने लगे, कभी उनका मन कहता ‘भगवान तो सबको बंधन से मुक्त करते हैं! तो यह कैसे भगवान जिन्हें मैंने बंधन से मुक्त करवाया हैं!’ कभी उनकी बुद्धि उनसे कहती ‘यदि मैं न होता, तो क्या यह बंधन से मुक्त हो पाते?’ जब गरुड़ जी के मन में यह प्रश्न बार-बार आने लगे तो वह इन का उत्तर जानने के लिए बैचेन हो गये। वे सीधे नारद जी के पास पहुंचे और उनसे बोले, “देव ऋषि! मुझे संशय हो गया है।”
“क्या?” नारद जी ने पूछा।
“मुझे यह संशय हुआ है कि श्री राम भगवान है भी या नहीं?” गरुड़ जी ने गंभीर वाणी में नारद जी से कहा।
यह सुनकर देव ऋषि नारद मन ही मन हँसने लगे। उन्होंने मन ही मन भगवान की माया को प्रणाम किया और सोचने लगे- ‘अनेक बार मुझे भी संदेह रूपी बीमारी हो चुकी है। आज यह बीमारी इन्हें भी हो गई। यह गए तो थे साँपों को काटने के लिए पर संशय रूपी साँप ने उलटे इन्हें ही काट लिया।’
गरुड़ जी ने धीर-गंभीर वाणी में आगे कहा, “हे देवर्षि! मैं जानता हूं कि संशय की निवृत्ति तो सतगुरु के द्वारा ही होती है। इसलिए अब आप ही मेरा संशय दूर कीजिए।”
यह सुनकर नारद जी बोले, “मैं तुम्हारें संदेह को दूर तो कर देता पर मेरे पास तो केवल एक ही मुख है, जो सदैव भगवान के गुणगान में ही लगा रहता है। मेरा मन और मेरी मति सब भगवान में ही लगी रहती है। एक मुख होने के कारण मैं तुम्हें नहीं समझा सकता। तुम ऐसा करो, हमारे पिताजी ‘ब्रह्मा’ जी के पास चले जाओ।”
नारद जी का गरुड़ को अपने से बडे के पास भेजना कुछ इसी प्रकार था, जैसे डॉक्टर को किसी मरीज के रोग का जब पता न लगे तो वह मरीज को अपने से बडे डॉक्टर के पास भेज देता है।
नारद जी के वचन सुनकर गरुड़ मन ही मन बहुत खुश हुए। उन्हें लगा कि मेरा सवाल इतना जटिल है जिसे नारद जी भी नहीं समझा सके। उन्होंने अपने पिताजी के पास जाने को कह दिया है। गरुड़ जी नारद को प्रणाम कर ब्रह्माजी के गए।
ब्रह्माजी के पास पहुँचकर गरुड़ ने उन्हें हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया।
“पक्षी राज! आपका यहाँ आगमन कैसे हुआ।” ब्रह्माजी बोले।
“ऋषिवर! मुझे संशय हो गया है।”
“क्या”
गरुड़ ने सिर झुकाकर विनम्र वाणी में कहा, “यही कि श्री राम भगवान है भी या नहीं।”
ब्रह्माजी मन ही मन समझ गए और बोले, “मैं तुम्हारे इस प्रश्न का उत्तर तब दूँगा, पहले तुम मुझे यह बताओ कि तुम्हें मेरे पास भेजा किसने है? ….कहीं रास्ते में तुम्हें नारद जी तो नहीं मिले थे।”
“हाँ उन्होंने ही तो मुझे आपके पास भेजा है” गरुड़ ने कहा।
यह सुनकर ब्रह्माजी बोले, “मैं पहले ही समझ गया था। ऐसा सिर्फ वही कर सकते हैं। लेकिन ऐसा है, मैं तुम्हें नहीं समझा सकता।”
“क्यों”
“क्योंकि मेरे चार मुख है और चार ही वेद हैं। मेरे चारों मुख सदैव ही चारों वेदों का वाचन करने में ही लगे रहते हैं। इसलिए मेरे पास तुम्हें समझाने का समय नहीं है। तुम ऐसा करो कि भगवान शंकर जी के पास चले जाओ। वह तुम्हें समझा देंगे।” ब्रह्माजी ने गरुड़ से कहा।
यह सुनकर गरुड़ जी के मन में और भी अभिमान आ गया। वह सोचने लगे मेरे प्रश्न का उत्तर ब्रह्माजी के पास नहीं है। आखिर मेरा यह प्रश्न कितान बड़ा है। एक मुख वाले ने चार मुख वाले के पास भेजा और चार मुख वाले ने कहाँ पाँच मुखवाले यानि शंकर भगवान के पास जाने को कह दिया है।
गरुड़ ने ब्रह्माजी को प्रणाम किया ओर वह कैलाश पर्वत की ओर चल पड़े। बीच रास्ते में ही गरुड़ जी को भगवान शंकर और माँ पार्वती मिल गए। गरुड़ जी ने उन्हें प्रणाम किया और हाथ जोड़कर बोले, “हे! देवादी देव! महादेव आप जगत गरू है। कृपा कर आप मेरा संशय को दूर कर दीजिए।”
“पक्षि राज! आपको क्या संशय हुआ है?” भगवान शंकरजी ने गरुड़ जी से पूछा।
गरुड़ ने श्रद्धा पूर्वक सिर झुकाकर कहा- “आप कृपा कर मैरा यह संशय दूर कर दीजिए कि श्री राम भगवान है भी या नहीं?”
शंकर जी तो सब जानते थे। उनसे कुछ भी छुपा न था। उन्होंने गरुड़ से कहा, “तुम्हारा प्रश्न तो ठीक है, लेकिन मैं तुम्हें समझा नहीं सकता।”
“क्यों भगवन?” गरुड़ के मुख से अनायास ही निकल गया।
भगवान शंकरजी के अधरों पर व्यंग्य भरी मुस्कुरान फैल गई। वह बोले, “क्योंकि तुम मुझे बीच रास्ते मिले हो। इसलिए मैं तुम्हें नहीं समझा सकता।”
शंकरजी के ऐसा कहने का भाव यह था कि या तो तुम अपने अज्ञान को अज्ञान के रूप में स्वीकार करके श्रद्धा पूर्वक वहीं रहते, जहाँ तुम थे। या फिर तुम हमारी स्थिति तक पहुँच जाते, तो तुम्हें कोई संशय (भ्रम) रहता ही नहीं। तुम वहाँ तक पहुँचे नहीं और यहाँ के रहे नहीं। तो ऐसे आदमी को समझाना मुश्किल है। दरअसल कोई अज्ञानी हो तो उसे समझाया जा सकता है। जब कोई ज्ञानी हो जाता है तो उसे समझाने की जरूरत नहीं होती। लेकिन जो न ज्ञानी है और न ही अपने को अज्ञानी माने यानि जो बीच में हो उसे ही संशय होता है। वास्तव में जितने भी भ्रम होते हैं वह सभी बीच रास्ते में ही होते है। आप इसे यूं समझिए जो पूरी तरह जागा हुआ है वह भी भ्रम में नहीं है और जो गहरी नींद में सोया अपने भीतर चला गया है वह भी भ्रम में नहीं है यह सपना तो बीच में ही आता है।
दूसरी तरफ शंकरजी की बात सुनकर गरुड़ मन ही मन में यह सोचकर खुश हुए कि आखिर मेरे प्रश्न का उत्तर शंकर भगवान भी नहीं दे पाए। अब यह भी कहेंगे मैं नहीं समझा सकता हमसे बड़े के पास जाओ। जैसे एक मुख वाले (नारद जी) ने कहा कि चार मुख वाले (ब्रह्माजी) के पास जाओ और चार मुख वाले ने कहा पंचानन (भगवान शंकर जी) के पास जाओ। अब कहीं यह न कह दे कि हमारे तो पांच मुख है, हम तुम्हें नहीं समझा सकते। तुम हमारे पुत्र सदानंद (छह मुख वाले) कार्तिके के पास जाओ और कहीं सदानंद जी यह कह देते कि हमारे तो छह ही मुख है, तुम्हें यदि समझना है तो तुम दशानंन (रावन) के पास चले जाओ।
“भगवन! बीच रास्ते में मिलने से मेरे संशय का क्या संबंध है?”
“देखो गरुड़! तुम मुझे बीच रास्ते में मिले हो इसलिए अब मैं तुम्हें नहीं समझा सकता।” शंकर भगवान बोले, किेंतु भगवान शंकर ने बहुत अनौखी बात कही, “गरुड़ अगर तुम्हें समझना है, तो तुम काकभुशुण्डिजी के पास जाओ।”
यह सुनकर गरूडजी सोच में पड गये। वह तो सोच रहे थे कि यह अपने से बडे मुख वाले के पास भेजेंगे। पर यह तो कह रहे हैं कि कौए के पास जाओ।
अब सोचो यदि पक्षियों के राजा गरुड़ को समझने के लिए जाना पड़े कौए के पास, तो क्या मन स्थिति होगी।
गरुड़ जी बोले- “भगवन! मुझे वहाँ जाना पडेगा?”
शिवजी बोले- “यदि तुम्हें समझना है तो जाओ। हम तो नहीं समझा सकते वहीं जाओ।” तब गरुड़ ने भगवान शंकर और माँ पार्वती को प्रणाम किया और वहाँ से चल पड़ा।
गरुड़ के जाने के बाद माँ पार्वती जी ने शंकर भगवान से पुछा- “देवा दी देव, महादेव! गरुड़ को आपने ही क्यों नहीं समझा दिया?”
तब शंकर भगवान बोले, अगर हम समझा देते तो इसका अज्ञान तो भले ही दूर हो जाता पर इसका अभिमान दूर नहीं होता। यह सबसे यह कहता फिरता कि कोई नहीं समझा सक। नारद जी ने तो साफ जवाब दे दिया हमारे बस की बात नहीं। ब्रह्माजी भी नहीं समझा पाएँ। जब शंकरजी के पास गए तो वह भी बहुत मुशकिल से समझा पाएँ। इसलिए यदि मैं इसे समझाता तो यह अभिमान लेकर सारी दुनिया में कहता फिरता शंकर जी ने समझाया मुझे। अब यह कौए से समझेंगा तो किसी से नहीं कहेंगा कि किसने समझाया। इसलिए यदि ज्ञान लेना चाहते हो तो तुम्हें कभी अभिमान लेकर नहीं जाना चाहिए।
अपने किसी जन्म में कभी गरूड जी ने अभिमान किया होगा। भगवान उसका यह अभिमान दूर करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने गरूड़ को काकभुशुण्डिजी के पास भेज दिया।
काकभुशुण्डिजी ने जब देखा पक्षियों के राजा गरूड़ आये हैं। तो उसने उठकर उनका स्वागत किया। “आज मैं धन्य हो गया आप मेरे यहां पधारे।”
तब गरूड़ ने काकभुशुण्डिजी को अपने संशय के बारे में बताया, “मुझे संदेह हो गया है कि राम सच में भगवान है या नहीं।”
तब काकभुशुण्डिजी बोले इसमें कोई आर्श्चय की बात नहीं है। अज्ञान है, आ ही जाता है। काई ऐसी बात नहीं है। अनादि काल से अज्ञान है। जब से समझ शुरू हुई है। तब से नासमझी शुरू हुई। नासमझी के लिए कहीं पढ़ने जाने की जरूरत नहीं। समझदारी के लिए भले ही पढ़ना पड़े। नासमझी के लिए पढने की क्या जरूरत है। अविद्या अनादि काल से है। जब से भगवान तब से यह है। लेकिन एक बात है अज्ञान अनादि तो है पर अज्ञान आनंत नहीं है इसका अंत हो जाता है। जबकि प्रज्ञा अनादि है और अनंत है।
नासमझी है, आ ही जाती है कभुशुण्डिजी ने गरुड़ से कहा, यदि संशय आ भी गया तो कोई खास बात नहीं है। मुझे कई बार संदेह हुआ है।
तब कभुशुण्डिजी ने गरुड़ को अपनी आत्मकथा सुनाई। उस आत्मकथा में भगवान की भक्ति भगवत मिलनयह सब तो सुनाया पर कभुशुण्डिजी ने अपनी आत्मकथा मैं एक बात कही तब गरुड़ जी ने पूछा आपको यह कौवे का शरीर कैसे मिला आप अपने बारे में बताओ।
तब कभुशुण्डिजी ने कहा, “कली काल का ऐसा भयावह समय था। सदाचार का पालन करने वाले लोगों का आभाव हो गया। एक बार कलयुग में मेरा जन्म अयोध्या में हुआ। मैं रामजी की नगरी में था। उस नगरी का क्या कहना बैकुंठ से भी अधिक अयोध्या की महिमा है। उस अयोध्या नगरी में मेरा जन्म हुआ। किंतू कलयुग का ऐसा प्रभाव था। की राम जी की नगरी में जन्म लेकर भी मुझे उस नगरी की महिमा समझ में नहीं आई। सचमुच समय का ऐसा प्रभाव था। कालचक्र ऐसा कि अयोध्या को देखता तो सोचने लगता कि क्या यही वह अयोध्या नगार है जिसकी महिमा मैंने सुनी है। फिर सोचता यही होगी। यह समय का चक्र था। कलयुग का प्रभाव। तभी वहाँ एक और घटना घट गई।”
“क्या”, गरुड़ ने पूछा!
तब कभुशुण्डिजी ने बताया कि अयोध्या में घोर अकाल पड़ गया। लोग इतने दुखी थे। यह देखकर मुझे लगा कि यह काहे के भगवान हैं! यदि यह भगवान की नगरी है तो क्या सब झूठ कहते हैं। भगवान तो सारे जगत का पालन करते हैं। पर यह तो अपनी नगरी तक का अकाल दूर नहीं कर पाएं। जगत का पालन क्या करेंगे। तब मेरे मन में आया कि इन्हें छोड़ो। वह देवता बढ़िया जिसके यहां सब कुछ ठीक-ठाक हो। तब मैंने अयोध्या का त्याग कर दिया।
“तो फिर तुम कहां आ गए।” गरुड़ ने पूछा।
“मैं अयोध्या से उज्जैन आ गया। उज्जैन देवों के देव महादेव भगवान शंकर की नगरी थी। वहां चारों तरफ हरियाली खाने-पीने को खूब मौज थी। बड़ा आनंद था। यहां सब ठीक था। तब मेरे मन में आया, अयोध्या कुछ नहीं है और मैं यहाँ रहने लगा। तब मैं शिव भक्त हो गया। एक बार एक ब्राह्मण देवता मुझे मिले मैंने उन्हें प्रणाम किया।”
“तब तो आप बड़े विनम्र स्वभाव के रहे होंगे। तभी आपने उन्हें प्रणाम किया होगा।” गरुड़ बोल उठे।
“न, मैं तो कुशल अभिनेता की तरह विनम्र होने का नाटक कर रहा था। मैंने जब उन्हें प्रणाम किया तो उन्होंने मुझे अपने पुत्र की तरह स्वीकार किया और वह मुझे पढ़ाने लगे। मैं भी पढ़ने लगा।”
“अच्छा अब तो आप ज्ञान पाकर निश्चित ही बड़े विनम्र हो गये होंगे।” । तब गरुड़ जी बोले।
कभुशुण्डिजी बोले, “मैं नहीं बदला। मैं तो विद्या पाकर ऐसा हो गया जैसे मुझमें साँप का जहर भर गया हो दूध पीने से।”
“तो आप करते क्या थे?” गरुड़ ने पूछा।
कभुशुण्डिजी बोले, “अब जब भी मैं किसी वैष्णव को देखता तो जलने लगता। भगवान विष्णुजी का विरोध करता और शंकरजी की प्रशंसा करता। मुझे गुरुजी समझाते की देखों विद्या तो अभेद बुद्धि प्राप्त करने के लिए होती है और तू तो भगवान में ही भेद कर रहा है। तब मैं उनसे कहा करता विष्णुजी शंकरजी का मुकाबला कैसे करेंगे?
गुरु जी ने पूछा, “तुम ऐसा क्यों कह रहे हो?”
“यहां देखो शंकरजी की उज्जैनी में कितना आनंद है। वहां अयोध्या की दशा देखों, अकाल पड़ा है।”
गुरुजी मुझे बहुत समझाते, “देखो तुम रामजी का विरोध मत करो। रामजी भगवान विष्णुजी के अवतार है। शंकर जी का भक्त होने का यह अर्थ नहीं है कि तुम दूसरों का विरोध करो।”
इस तरह गुरुजी मुझे रोज समझाते। पर मैं नहीं मानता। कुछ दिनों बाद तो मुझे ऐसे लगने लगा कि गुरुजी भी कुछ कम समझते हैं। इनका भी दिमाग कुछ ऐसे ही है। ऐसे ही एक दिन गुरु जी मुझे बड़े प्रेम से समझा रहे थे। मैंने उनसे कहा, “नहीं-नहीं रामजी, शंकरजी के आगे कुछ नहीं हैं। तो गुरुजी बोले, “सुनो तुम जिन शंकरजी की बात कर रहा हो वह शंकर भगवान भी उन्हें अपना भगवान मानते हैं। यह सुनकर मेरे हृदय में आग लग गई। शंकरजी और उनके भक्त! यह हो ही नहीं सकता। उस दिन से मैंने गुरुजी को यह समझ लिया कि इन्हें कुछ नहीं आता जाता।
“फिर क्या हुआ” गुरूड़ ने आगे पूछा।
“गुरूजी फिर भी मौका देखकर मुझे समझाते रहते क्योंंकि उनमें मेरे प्रति करुणा का भाव था। एक दिन मैं महा कालेश्ववर मंदिर में बैठा हुआ ‘ऊँ नमो शिवाय’, ‘ऊँ नमो शिवाय’, ‘ऊँ नमो शिवाय’ मंत्र जप रहा था। गुरू देव आए। मैने अभिमान में आकर उन्हें प्रणाम नहीं किया।”
यह सुनकर गरुड़ बोले, “तो आप जरूर ध्यान में बैठे जप कर रहे होंगे। आपने उन्हें मन ही मन प्रणाम कर लिया होगा।
कभुशुण्डिजी बोले, “सही बात बताएं?”
“क्या” गरूड ने पूछा।
“मैंने जब देखा कि गुरु जी आ रहे, तो मैने सोचा इन्हें उठकर प्रणाम करना पड़ेगा। इसलिए मैंने अपनी खुली आँखे बंद कर। जिनकी वजह से आँख खुली थी। उन्हें देखकर ही जब कोई अभिमान के कारण आँख मूंद ले तो तुम उसे क्या कहोगे।… लेकिन गुरुदेव तो गुरू देव है। उन्होंने मुझे कुछ नहीं कहा। उन्होंने ऐसा करके मेरे पीछे अपना बडप्पन नहीं छोडा।
यह बिलकुल उसी प्रकार था जब किसी ने पानी से पूछा- “पानी तुम पत्थर के टुक्डों को डुबो देते हो, लोहे की कील को डुबो देते हो, पर तुम अपने ऊपर बड़ी-बड़ी लकड़ियों को तैरने देते हो उन्हें क्यो नहीं डुबोते? पानी ने उत्तर दिया- “अपना सींचो जान के यानि जिसे मैंने ही सींच कर बडा किया है यदि उसे डुबो दूँगा तो मेरा बडप्पन क्या रहेंगा। यही गुरूदेव ने किया था मेरे साथ।
इसीलिए जब मैंने गरू जी को प्रणाम नहीं किया तो गरूजी ने कुछ नहीं कहा। उनकी वाणी और हृदय में मेरे प्रति कोई द्वेष नहीं था। परंतु गुरू की अवमानना करना केवल पाप नहीं है। यह तो सबसे बड़ा महापाप है। यह इतना बड़ा पाप है जो शंकर भगवान से सहन नहीं हुआ। तभी मंदिर में आकाशवानी गूंज उठी तुम्हारे गुरू देव को कोद्ध नहीं आया वह बड़े ही कृपालु है। उनके चित में समयत प्रकार से बोध है। पर तुमने जो पाप किया है उसके लिए मुझे तुम्हे दंड देना पड़ेगा। नहीं तो परंपरा नष्ट हो जायेगी। मैं तुम्हें शाप देता हूँ- तुम्हें हजार जन्म साँप के मिले।” यह कहकर कभुशुण्डिजी कुछ देर मौन रहे।
यह सुनकर मैं घक्क से रह गया। मैं तो सोचता था कि मेरी भगवान से सीधा संबंध है। गुरुजी की जरूरत ही क्या है? अब तो भगवान भी नाराज हो गए। शंकर भगवान जगतगुरु है। इसलिए जब गुरु का अपमान हुआ तो जगतगुरु नाराज हो गए। नवधा भक्ति में कहा जाता है-
गुरु पद पंकज सेवा तीसरी भक्ति अमान
कभुशुण्डिजी आगे बोले- “मुझे तो शंकर जी ने ही शाप दे दिया। मैं जिनके भरोसे था, उन्होंने ही शाप दे दिया तो अब मैं क्या करता। लेकिन धन्य है मेरे गुरुजी उन्होंने हाहाकार किया। त्राहिमाम! त्राहिमाम! त्राहिमाम! हे देवा दी देव महादेव आप इसे क्षमा करें। क्षमा करें। आपकी ही माया से ग्रसित होकर यह जीव सदा भटकता रहता है। उस पर आप कोप न करिए! यह मेरे गुरुदेव की महानता थी। यदि गुरु की जगह कोई और होता तो वह शंकर जी से यह कहता कि आपने अच्छा किया जो इसे सजा दी। यह इसी लायक है। परंतु मेरे गरू ने मेरे लिए शंकर भगवान से प्रार्थना कि-
नमामि शमीशान निर्वाणरूपम्।
विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम्।
निज निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहम्।
चिताकाशमकाशवासं भजे हं।।नमामि शमीशान निर्वाणरूपम्।
“तब दोबारा मंदिर में आकाशवाणी गूंज गई। शंकर भगवान बोले सुनो, तुम्हारे गुरुदेव ने मुझसे प्रार्थना की है, इसलिए मैं तेरे शाप में संशोधन करता हूँ। आज के बाद कभी ऐसा मत करना। तुम्हें हजार जन्म साँप के तो अवश्य मिलेंगे किंतु जन्म और मरने पर जो दु:सह दुख होता है। वह तुम्हें नहीं होगा। तुम जब चाहेगा तब अपना शरीर छोड़ सकेगा। तुम्हें अपने किसी भी जन्म का ज्ञान नहीं मिटेगा। तुम्हें अपने सभी जन्मों की याद भी बनी रहेगी। जगत में तुम्हें कुछ भी दुर्लभ न होगा। तुम्हारी सर्वत्र अबाध गति होगी। मेरी कृपा से ही तुम्हें भगवान श्री राम के चरणों के प्रति पुण: प्राप्त होगी।
यह सुनकर मैं अपने गुरुदेव के चरणों में गिर गया। बिछड़ने का क्षण था इसलिए उन्हें बार-बार प्रणाम कर रहा था। गुरुदेव की भी आँखों में आँसू थे। उन्होंने यही कहा, “तुम्हारा कल्याण हो।”
“पर तुम्हें कौए की यौनी कैसे मिली?” गरुड़ ने कभुशुण्डिजी से पूछा।
कभुशुण्डिजी बोले, “फिर मैं विन्ध्याचल पर्वत पर चला गया। जहां मैने अपना शरीर छोड़कर सर्प योनि प्राप्त की। कुछ काल बीतने पर मैंने उस शरीर को बिना किसी कष्ट के त्याग दिया। इस प्रकार मैं जब चाहता तब बिना किसी कष्ट के शरीर छोड़ देता। जिस प्रकार मनुष्य अपने पुराने वस्त्र को त्याग कर नये वस्त्र पहन लेता है। मुझ में प्रत्येक जन्म की याद बनी रहती। धीरे-धीरे मुझ में श्री रामचन्द्र जी के प्रति भक्ति भी उत्पन्न हो गई। जब मेरे हजार जन्म पूरे हुए तब मेरा जन्म ब्राह्मण परिवार में हुआ। विप्र कुल में जन्म होने पर मेरा नाम भुशुण्डि रखा गया।
गरुड़ जी ने पूछा, “अच्छा तुम यह बताओ तुम्हें मरने जीने का कोई दुख नहीं हुआ।
कभुशुण्डिजी बोले, “मुझे मरने जीने का तो कोई दुख नहीं हुआ। परंतु एक दुख है जो नहीं मिटता।”
“कौन सा”, गरुड़ ने पूछा।
कभुशुण्डिजी आगे बोले, “मेरे गुरुजी के शील स्वभाव का। उनके शील स्वभाव का स्मरण आते ही मुझे अपने व्यवहार की याद आ जाती है। इससे मुझे पीड़ा होती है। मुझे इस बात का भी ज्ञान हुआ कि जो गुरुदेव का सम्मान न करें उसे भगवान भी नहीं अपनाते। शंकर भगवान ने भी यही कहा हैं, मेरा भक्त वह जो गुरु का सम्मान करें। जो गुरुदेव का सम्मान न करें वह मेरा भक्त नहीं हो सकता। भले ही वह मेरे मंदिर में बैठकर मेरा नाम ले। उसेमुझसे वरदान नहीं शाप ही प्राप्त होगा। जो गुरु का भक्त वह मेरा भक्त है। यही बात श्रीराम जी भी कहते हैं, जो गुरुदेव का भक्त वह मेरा भक्त।”
कभुशुण्डिजी आगे बोले, “अब यह सुनो मुझे कौए का शरीर कैसे मिला, “ब्राह्मण होने के कारण मुझे ज्ञान प्राप्ति के लिए लोमश ऋषि के पास भेजा गया। लोमश ऋषि मुझे जब ज्ञान देते तो मैं उनसे भी अनेक प्रकार के तुर्क-कुर्क करता रहता। एक दिन मेरे इस व्यवहार से कुपित होकर उन्होंने मुझे शाप दे दिया कि जा तू चांडाल पक्षी कौवा हो जा। तब मैं तत्काल कौवा बनकर उड़ गया। किंतू शाप देने के पश्चात लोमश ऋषि को अपने इस शाप पर पश्चाताप हुआ। तब उन्होंने मुझे वापस बुलाया और मुझे ‘राम मंत्र’ दिया तथा इच्छा मृत्यु का भी वरदान दिया। मुझे कौवे का शरीर पाने के बाद ही राम मंत्र मिला। इस कारण ही मुझे इस शरीर से प्रेम हो गया। मै तब से कौए के रूप में ही रहने लगा। इस प्रकार में कभुशुण्डि के नाम से विख्यात हूँ।”
हे पक्षी राज! अब तो आपके संशय का निवार्ण हो गया होगा। कभुशुण्डि ने गरुड़ से पूछा।
“हाँ बिलकुल हो गया।” गरुड़ बोला।
निष्कर्ष
जब हमारे मन में ईश्वर के प्रति कोई भी संदेह जन्म लेता है। तो हमें भी उसका उत्तर जानने का प्रयास करना चाहिए ताकि हम अपनी अघ्यात्मिक प्रगति में आगे बढ़ सके। नहीं तो हम जीवन में कभी भी आगे तरक्की नहीं कर पाएंगे।