“संग सखा सब तज गए, कोऊ न निबहो साथ, कहे नानक इस विपद में, एक टेक रधुनाथ।।” | Sang sakha sab taj gaye, koi na nibhaayo saath, Kahe Nanak, is vipad mein, ek tek Raghunath
गुरु ग्रंथ साहिब के पेज नंबर 1429 पर दिए इस दोहे में गुरुनानक जी कहते हैं- जब सभी संगी साथी साथ छोड़ कर चले जाते हैं, कोई भी हमारा साथ नहीं निभाता। तब इस विपदा के समय केवल रधुनाथ (परमात्मा) हमारा साथ निभाते हैं।
पहले की भांति मैं इस दोहे को भी आप सब को एक सच्ची घटना के माध्यम से बताना चाहँगी तकि आप सब इस दोहे के शाब्दिक अर्थ तक ही सीमित न रहें आप अपनी तार्किक बुद्घि से इसके सही अर्थ को समझकर प्रभु का सिमरण करें।
हजारीबाग जिले की यह सच्ची घटना है। (पुराना बिहार जो अब झारखंड हो गया है।) ईश्वरी नाम का एक गाँव था। उस गाँव में एक बालक का जन्म हुआ। परिवार वाले श्रद्धालु भक्त थे। परिवार वालों ने बालक का नाम रखा ‘श्री राम टहल पांडे’। श्री राम टहल पांडे का जन्मोत्सव मनाया गया। लेकिन काल की गति समझ में नहीं आती। पल से पल में क्या हो जाए पता नहीं होता। जब बालक थोड़ा बड़ा हुआ तो उसके माता-पिता का देहांत हो गया। उस नन्हें से बालक के पालन-पोषण का भार उसके बड़े भाई और भाभी पर आ गया। कुछ दिन बाद उसके बड़े भाई का भी देहांत हो गया। तो भी विपत्ति ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। कुछ दिन बाद चेचक की बीमारी ने उस बालक को आ घेरा। इस बीमारी में उसके दोनों नेत्र चले गए। परिवार में गरीबी आ गई। अब परिवार में एक विधवा भाभी और अंधे राम टहल पांडे।
सभी होते हैं, रिश्तेदार जब कि जर (धन) पास होता है और बिगड़ जाता गरीबी में जो रिश्ता वो खास होता है। कोई नहीं लेकिन कोई बात नहीं। राम टहल पांडे भगवान के भरोसे रहते। विधवा भाभी भिक्षा कर लेती। किसी तरह राम टहल पांडे और विधवा भाभी का पेट भरता। किसी तरह से गुजर- बसर चल रहा था। गरीबी के इस आलम में उस बालक का नाम भी बदल गया। अब कोई उस बालक को ‘राम टहल पांडे’ नहीं कहता। ‘राम’ नाम भी चला गया और ‘पांडे’ नाम भी चला गया। अब लोग उसे ‘टहलवा- टहलवा’ कह कर पुकारते। दरअसल गरीबों के नाम अलग होते हैं और अमीरी के नाम अलग होते हैं। यही जिंदगी की सच्चाई है।
धीरे-धीरे टहलवा बड़ा होने लगा। लेकिन इस बालक की एक विचित्र बात यह हुई कि इसको भागवत कथा सुनने की लगन लग गई थी। इसे दिखाई तो नहीं देता था, लेकिन इसे राम कथा सुनने का व्यसन हो गया था। इसे जब भी कहीं से पता चलता कि अमूक जगह पर श्रीमद् भागवत कथा हो रही है। वह उड़ जाता कथा सुनने।
एक बार उनके गाँव में ही भागवत कथा हुई। जब टहलवा को पता चला तो वह कभी पुलकित होता, तो कभी रोमांचित होत, कभी उसके नेत्रों से अश्रु बहने लगते तो कभी उनका ह्रदय भाव से भर जाता। सातवें दिन भागवत कथा कहकर व्यास जी विदा होने लगे तो टहलवा किसी से पता पूछ कर दीवार का सहारा लेते हुए व्यास जी के पास जा पहुँचे और व्यास जी के चरणों में अपना सिर रख कर बोले, “बाबा मुझे दिखाई नहीं देता लेकिन आप मुझे अपना हाथ पकड़ा दिया करें मैं सेवा कर दिया करूँगा। आपके शरीर में तेल लगा दिया करूँगा। आप दे दिया करो मैं कपड़े धो दिया करूँगा। पर मेरी एक ही लालसा है कि आपके मुख से होने वाली कथा सुनता रहूं। आप यूहीं मुझे भगवान की कथा सुनते रहे।
यह सुनकर व्यास जी भी भाव से भर गए। उनकी आँखों में भी आंसू भर आए, उन्होंने कहा, “नहीं, नहीं राम टहल पांडे जी आपको सेवा करने की आवश्यकता नहीं है! सेवा करने वाले और लोग हैं! आप तो बस कथा सुना करो और प्रसाद पाया करो। आप तो बस हमारे पास ही रहा करो।”
जब व्यास जी किसी दूसरे गांव जाते तो राम टहल पांडे वहाँ भी जाते और कथा सुनकर लौट आते। इस तरह राम टहल पांडे सदैव ही भगवान के भाव से भरे बड़े आनंद से रहते। किसी ने सही ही कहा है- ‘जो भाव से भरा होता है उसके जीवन में अभाव नहीं होता।’
परंतु राम टहल पांडे के जीवन में अभाव ही अभाव थे, लेकिन वह भगवान के भाव में डूब कर रहते। इसलिए उन्हें कोई अभाव नहीं था। भाभी रोज भोजन बना देती। वह अपने गमछे में रोटी और आचार बांध लेते और पैदल-पैदल चले जाते जहाँ कथा हो रही होती। कथा सुनते दोपहर को जब श्रीमद् भागवत कथा का विराम होता तो वही रोटी खा लेते। फिर कथा सुनते शाम को लौटते। ऐसे जैसे कितना बड़ा धन मिल गया हो। जिस प्रकार मीरा जी को नाम रूपी धन मिलने पर उन्होंने कहा था-
पायो जी मैंने, राम रतन धन पायो। वस्तु अमोलिक, दी मेरे सतगुरू। कृपा कर अपनायो। जन्म जन्म की पूंजी पाई। जग में सभी समायों।। खर्च ना खूटे, चोर ना लूटे। दिन दिन बढ़त सवायो।।
इस प्रकार राम टहल पांडे के जीवन आनंद से कट रहा था। एक दिन बरसात होने लगी। बादल गरजने लगे। बिजली चमकने लगी। भाभी ने सोचा आज देवर कथा में नहीं जाएँगे। देवर स्नान करने गए। लोटे और बोले, “भाभी! लाओ मेरा भोजन दे दो। मैं भागवत कथा सुनने जाऊँगा।”
भाभी ने कहा, “आज मैंने भोजन कथा में जाने के लिए नहीं बनाया। ऐसे मैं तुम्हें वहाँ नहीं जाने दूंगी। आज बूरा दिन है भयंकर बरसात हो रही है। बिजली चमक रही है और तुम्हें दिखाई नहीं देता, कहीं फिसल जाओगे, कही गिर जाओगे।”
राम टहल पांडे दुखी हो गए। उन्होंने अपनी भाभी से कहा,”भाभी माँ आप क्या बात कर रही हैं-
सो दिन दूर दिन नहीं मेघ नभ में घिर आएं। अदिन न इंद्र उपल बरसा कर व्रज गिरावे।। सो दिन दूर दिन नहीं उधर को अन्न न पावें। प्रेमी संबंधी जीवन में वीरथ जावें।। दूर दिन नहीं वनीत कोई, जैती विपती बसानीय। श्रवन पडे न हरि कथा, सो दिन दूर दिन जानिए।।
अर्थात् ऐसा भी बुरा दिन नहीं है कि इ्ंद्र बरसात कर व्रज पात कर दें। ऐसा भी बुरा दिन नहीं हैं कि पेट में अन्न न जाएँ। ऐसी भी कोई विपत्ति नहीं आई है। जिस दिन हरि कथा ही श्रवण न हो जब ऐसा होगा, वो निश्चित ही बुरा दिन होगा।)
यह कहकर राम टहल पांडे ने अपनी लकड़ी उठाई और बिना भोजन के ही आवेश में ही घर से चल दिए कथा सुनने। आकाश में बिजली चमक रही थी और बादल घनघोर बरस रहे थे। लेकिन बिना किसी की भी परवाह किए राम टहल पांडे सीता राम राधे श्याम कहते हुए अपने गांव से दूसरा गांव के लिए चले जा रहे थे। दूसरा गाँव से जब वह कुछ ही दूरी पर थे तो उन्हें विचार आया कि आज तो कथा आरंभ हो गई होगी मुझे ही देर हो गई है। यह सोचकर वह जल्दी-जल्दी अपने कदम उठते जा रहे थे। वर्षा मार्ग में बाधक थी। फिर भी वह बढ़ते जा रहे थे।
गाँव आने के एक फलांग पहले ही उन्हें लगा कि गाँव आ गया है। सड़क से नीचे उतर गए और थोड़ा आगे बड़े। पर वह रास्ता गाँव न जाकर जंगल को जाता था। वह रास्ता खोजते हुए ही थोड़ा आगे बढ़े। संयोग की बात उसे जंगल में एक कुआँ था। पर जंगल के कुएँ पर चबूतरा नहीं बना था। वह कुआँ समतल भूमि पर था। रामल टहल पांडे आगे बढ़ते गए और उस अँधे कुएँ में जा गिरे। उस कुएँ में पानी नहीं था पर उसकी गहराई बहुत थी। ऊपर से बिजली चमक रही थी। बादल भी गड़गड़ा रहे थे और वर्षा भी हो रही थी। वह उस कुएँ में गिरे पड़े थे। उस जंगल में उनकी आवाज कौन सुने। पहली बार राम टहल पांडे ने भगवान से प्रार्थना की- “प्रभु मेरे माता पिता भी छूट गए, मेने शिकायत नहीं की। मेरा बड़ा भाई भी बीछड गए, मेने शिकायत नहीं की। मुझे अँधा बना दिया, मैंने तो भी शिकायत नहीं की। भले ही आपने मुझें कुएँ में गिरा दिया हो, मैं आज भी शिकायत नहीं करूँगा। पर मुझ निर्बल को दुख इस बात का है कि आज का दिन बिना कथा सुने चला जाएगा। मैं तो बस तुम्हारी कथा सुनना चाहता था।”
कहते है न कि-ख़ुदा मंजूर करता है सदा जब दिल से होती है। मगर मुश्किल तो यह है, बात यह मुश्किल से होती है।
राम टहल पांडे की पुकार भगवान प्रकट हो गए और कुएँ के ऊपर खड़े होकर बोले, “अरे राम टहल पांडे जी! आप यहाँ कैसे गिर गए वहाँ कथा शुरू नहीं हुई।”
“भाई वहाँ कथा शुरू हो गई होगी समय बहुत हो गया है। मैं ही लेट हो गया!” राम टहल पांडे ने नीचे से उत्तर दिया।
“नहीं-नहीं, अभी कथा शुरू नहीं हुई। आज व्यास जी का स्वास्थ्य खराब है, थोड़ी देर में ही होगी कथा शुरू।”
“अरे भैया! हमें लगता है हमारे लिए ही कथा रुक गई है। तुम एक काम करो हमें इस कुएँ से बाहर निकालो। गाँव वालों को बुलाओ। रस्सी ले आओ। मैं तो कुएँ में पढ़ा हूँ।”
भगवान बोले, “ कुआँ नहीं है यह तो गड्डा है।”
“अरे भैया गड्डा नहीं है, बहुत गहरा कुआँ है।” राम टहल पांडे बोले।
“नहीं भैया! तुम्हें दिखाई नहीं देता, इसलिए तुम्हें यह कुआँ लग रहा है।” भगवान बोले।
“मैं ही तुम्हें हाथ पकड़ कर निकाल लेता हूँ! तुम बस मेरे हाथ को पकड़ो लो।”
राम टहल पांडे बोले, “भाई मेरे! मैं तो अंधा आदमी हूँ। मुझे दिखाई नहीं देता कि तुम्हारा हाथ कहा है, तुम ही मेरा हाथ पकड़ लो।”
तब भगवान ने राम टहल पांडे का हाथ पकड़ उसे बाहर निकाल लिया।
भव कूप हित निवल न मोहें विचार। केते जन भव कूप से मैंने लिए उभार।।
भव कूप से पार करने वाला जब उभारे तो कुआँ क्या चीज है। भगवान का हाथ पकड़े जब राम टहल पांडे बाहर निकले तो भगवान ने हाथ छुड़ाना चाह। तो राम टहल पांडे ने दूसरा हाथ भी पकड़ लिया। और बोले, “अब तो मुझे लगता है कि आप भगवान हो।”
“नहीं-नहीं भगवान नहीं, मैं तो श्रोताओं को बुलाने जा रहा हूं” भगवान बोले
राम टहल पांडे तब संत सूरदास जी की तरह कहते हैं।
बहां छुड़ाए जात हो, निर्बल जान के मोहि। हृदय से जब जाओगे, तब सबल जानूँगा तोय।।
निर्बल जान कर मुझ से अपनी बाँह छुड़ाए जाते हो पर मेरे हृदय से कैसे जाओगे।
भगवान ने जाते-जाते कहा, “यह पुष्प लो इसे चढ़ा देना कथा में।”
राम टहल पांडे बोले, “फिर तो व्यास जी कथा में मुझ से रोज फूल मांगेंगे। मैं कहाँ से लाऊँगा। मैं तो अंधा आदमी हूं।”
“तुम चिंता मत करो, जब तुम कथा में पहुँचोगे तुम्हारे हाथ में फूल अपने आप आ जाया करेंगे” भगवान बोले।
राम टहल पांडे ने बातों पर गौर ही नहीं दिया। उसे लगा कि कोई भले आदमी ने हमे निकाल दिया और रास्ते से लगा दिया। चलो-चलो मैं चलता हूँ और गांव की ओर बड़ गए। मानों भगवान ही सबको कथा के लिए बुलाने जाते हैं।
श्रोता आने लगे राम टहल पांडे धीरे-धीरे जा रहे थे। अस्वस्थ व्यास जी धीरे-धीरे उठे मंच पर आकर बैठे गए। तब उन्होंने देखा कि राम टहल पांडे की भाभी भोजन लेकर आई है। तब वह व्यास जी बोली, “आज देवर बिना भोजन किए आ गए तो मैं भोजन लेकर आई हूँ। क्या आए नहीं देवर।”
“अभीआते होंगे रख दो भोजन।” व्यास जी बोले।
भाभी ने भोजन रख दिया और व्यास पीठ को प्रणाम किया। व्यास जी अस्वस्थ थे। भाभी ने एक पान चढ़ा दिया और प्रणाम कर चली गई।
इतनी देर में राम टहल पांडे आए तो व्यास जी ने कहा, “तुम्हारी भाभी आई थी। अरे! यह क्या तुम्हारा तो रक्त बह रहा है।”
तब राम टहल पांडे बोले, “मैं रास्ता भटक गया था और जंगल के गड्ढे में गिर गया था।”
“उस जंगल में तो कोई गड्ढा नहीं है, वहाँ तो कुआँ है।” व्यास जी बोले।
“कोई आया था उसने कहा, हम हाथ पकड़ कर निकाल लेंगे। उसने तो हाथ पकड़ कर ही मुझे वहाँ से निकाल लिया।”
“अच्छा चलो पहले भोजन करो।”
राम टहल पांडे ने जब भोजन किया तो भोजन बहुत ही स्वाद था। भोजन खाने से उसके सभी घाव ठीक होने लगे। जब व्यास जी ने वह पान खाया तो उन्होंने इतनी सुंदर कथा कही। ऐसे ऐसे प्रसंग उन्होंने सुनाए कि सभी लोग आनंदित हो गए।
राम टहल पांडे शाम को थाली लौटा लेकर घर लौटे तो उन्होंने भाभी के पास जाकर कहा, “भाभी माँ, मुझे क्षमा करो मैं तुम से नाराज होकर चला गया था। अगर आज आप वहाँ न आती तो मैं भूखा ही रह जाता। आपने मुझ पर बड़ी कृपा की।”
“मैं तो कहीं नहीं गई। मैं तो पूरा दिन घर में थी।” भाभी बोली।
यह सुनकर राम टहल पांडे के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वह सोचने लगे यदि भाभी माँ वहाँ नहीं आई थी तो यह थाली लोटा कहाँ से आ गया।”
“मैं नहीं जानती कौन थाली लोटा ले गया।” भाभी माँ बोली।
दूसरे दिन राम टहल पांडे जब कथा सुनने गए तो उन्होंने व्यास जी को पूरा प्रसंग सुनाया। तब व्यास जी ने भगवान को हाथ जोड़कर प्रणाम किया ओर कहा-
धन्य है आप प्रभु! अर्ध्र की आरती निवार देखों नाथ आप विपद विराद देखों बाहं बडावत हो। लेष हो लाज कमलेष जू न लागत तुम्हें, भक्त हेतू भाभी का वेष धरी आवत हो।
जिसका अर्थ है कि भक्त की पुकार सुनकर अपनी बाहँ उसे पकडाते हो और आपको भाभी का भी वेष धर कर आने में भी लाज नहीं आती है। इसी लिए कहा जाता है कि भगवान कृपा करते है। पस्थिति चाहे जैसे हो। लेकिन भगवान की कृपा पाने के लिए भगवान पर भरोसा करना होता है। इसीलिए कहा गया है-
संग सखा सब तज गए, कोऊ न निबहो साथ, कहे नानक इस विपद में, एक टेक रधुनाथ।।
बहुत बढ़िया…!